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जसवंत ने क्यों लिखी किताब (जग बौराना) (व्यंग्य/कार्टून)

Posted by K M Mishra on September 1, 2009

___________________________________ नरेश मिश्र
साधो, तू कौन !
मैं खामखां ।
तू क्या करता है ?
दूसरे के फटे में टांग अड़ाता हूं ।
तू इस घने जंगल में क्या कर रहा है ।
बस यूं ही किसी शेर की तलाश कर रहा हूं ।
शेर मिल गया तो तू क्या करेगा । वह तो तुझे फाड़ खायेगा ।
इसीलिये तो मैं जंगल में घूम रहा हूं कि शेर मुझे फाड़ खाये ।
शेर फाड़ खायेगा तो तुझे क्या मिलेगा ।
मुझे सब कुछ मिल जायेगा ।
क्या मिलेगा? कुछ बतायेगा भी ।
शेर मुझे खायेगा तो उसके मुंह में इंसान का खून लग जायेगा ।
वह मुझे खाने के बाद खामोश नहीं बैठेगा । वह दूसरे आदमियों को भी खायेगा ।
शेर दूसरों को भी खायेगा तो तुझे क्या हासिल होगा ?
मुझे सब कुछ हासिल हो जायेगा । तुम जानते नहीं मैं खामखां हूं ।

साधो, अपने मुल्क की बेहद दमदार कही जाने वाली भाजपा में खमखां लीडरों की कमी नहीं हैं । हाईकमान के ऊंचे पायदान पर विराजमान जनाब लालकृष्ण आडवाणी को जाने क्या सूझी कि उन्होंने जिन्ना की तारीफ के पुल बांध दिये । पुल तो बंध गया लेकिन भूचाल आ गया । धरती कांपी और पुल ध्वस्त हो गया ।

आडवाणी चौंक पड़े । उन्हें लगाकि पाकिस्तान का सफर मंहगा पड़ा । कायदे आजम जिन्ना की तासीर अजीबो गरीब है अगर कोई भाजपाई भूले भटके पाकिस्तान की सरजमीं पर कदम रख दे तो जिन्ना साहब का जिन्न उस पर सवार हो जाता है । बहरकैफ आडवाणी तो आर.एस.एस. की झाड़ फूंक से सेहतमंद हो गये । उन पर आयी बला टल गयी । अब जसवंत सिंह को इसी जिन्न ने पकड़ रखा है । फौज में नौकरी करने के बाद सियासत के मैदान में चौकड़ी भरते वक्त पता नहीं कौन सा खब्त सवार हुआ कि पोथी रचने बैठ गये । शायद भाजपा की करारी शिकस्त से उन्हें लगा कि अब भाजपा में रहना मंदे का धंधा है । किताब लिख कर कुछ कमाई की जा सकती है । किताब भी अगर सनसनीखेज और चौंकाने वाली न हो तो उसे कोई खरीद कर पढ़ने से रहा । भाजपा कि चिंतन बैठक में वैसे भी खिसियानी बिल्ली खंभा नोचने का रस्म अदा कर रही थी । हार का ठीकरा फोड़ने के लिये सिर की तलाश जारी थी । जसवंत सिंह को लगा कि यही मौका है । इसी मौके पर किताब जारी कर देनी चाहिये । सो बड़े ज़ोर शोर से किताब बाज़ार में जारी हो गयी । बिल्ली तो खिसियानी बैठी थी । उसने खंभा छोड़ कर जसवंत को नोच लिया । खंभे ने राहत की सांस ली होगी । उसे निजात दिलाने वाला एक मर्दे-मैंदा तो मिला ।

जसवंत सिंह और चाहे कुछ हो नादान कतई नहीं है । उन्होंने भाजपा छोड़ने का मन बना रखा था । जिन्ना की तारीफ करने का और कोई मकसद हो ही नहीं सकता । यह तवारीख बड़ी जालिम चीज है । यह लिखे हुये दस्तावेजों को आंख बंद कर खंगालती है । इसे कथनी पर पूरा भरोसा होता है । यह करनी की और देखने का जहमत नहीं उठाती है । कबीर साहेब ने ठीक ही कहा है – तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखिन की देखी ।

अब जनाब जसवंत सिंह को सेकुलर जिन्ना तो याद रह गये लेकिन उनके सेकुलरिज्म का नतीजा कतई याद नहीं आया । जसवंत सिंह की उम्र का इस बंदे को पता नहीं है लेकिन उनके पके बाल गवाही देते हैं कि उन्होंने मुस्लिम लीग का डाइरेक्ट एक्शन आंदोलन जरूर देखा होगा । नहीं देखा तो उसके बारे में सुना होगा । यह हिन्दुस्तानी मुसलमानो की वह खूनी जद्दोजहद थी जिसमें हिन्दुओं की लाशों के अम्बार लग गये थे । समूचा कोलकाता लहूलुहान हो गया था । जनाब सोहरावर्दी और गजनफर अली मुसलमानों को थोक भाव कत्लेआम करने के लिये उकास रहे थे ।

अगर धर्मनिरपेक्षता का यही ज्वलंत उदाहरण है तो साम्प्रदायिकता की परिभाषा तलाशने के लिये शीर्षासन करना होगा । इस हकीकत से क्या फर्क पड़ता है कि जिन्ना अपनी जवानी के दिनों में कांग्रेस के सदस्य थे और वे अलग मुस्लिम राज्य को नापसंद करते थे । रावण अपनी जवानी के दिनों में महा तपस्वी और परम ज्ञानी था । उसने चार वेद और छ: शास्त्र पढ़े थे इसीलिसे वह दशमुख कहा जाता है तो राम को लंका जाकर रावण से युध्द करने की क्या जरूरत पड़ गयी । हर इंसान को उसकी कथनी के पैमाने से नापने की कोशिश करें तो नतीजें हमेशा गलत ही निकलेंगे ।

बहरकैफ जिन्ना की तारीफ तक तो जसवंत सिंह को माफ किया जा सकता था । यह गलती आडवणी पहले ही कर चुके थे लेकिन जसवंत सिंह ने सरदार पटेल को भी लपेटे में ले लिया । दलील यह कि आर.एस.एस. पर पटेल ने प्रतिबंध लगाया था । आर.एस.एस. पर जसवंत सिंह का ये मोह कैसे उमड़ा । वे खुद कहते हैं कि उनका इस संगठन से कोई रिश्ता नहीं था । अब वही कहावत याद आती है – जेहि बिधना दारून दुख देहिं, ताकि मति पहिले हर लेंहि । हम जिन्ना को याद रखना जरूरी नहीं समझते । किसी भी हिन्दुस्तानी को उनकी याद दिलायी जाये तो उसे पंजाब और बंगाल में थोक भाव कत्ल किये गये हिंदू और सिख ही याद आयेंगे ।

हमें जिन्ना की फिक्र क्यों करनी चाहिये ? उनकी फिक्र तो अब पाकिस्तान के बहुत सारे लीडरान भी नहीं करते । हमें फिक्र तो जनाब जसवंत सिंह की है । वे अब क्या करेंगे । दो रास्ते हैं । कांग्रेस ज्वाइन कर लें तो इस संस्था के कबाड़खाने में उनके लिये काफी जगह है । कल्याण सिंह को आखिर समाजवादी पार्टी के कबाड़खाने में डम्प होना ही पड़ा । दूसरा रास्ता यह है कि जसवंत सिंह जल्दी पाकिस्तान जाकर अपनी किताब का प्रचार करें । वहां यह किताब आम लोग तो नहीं पढ़ेंगे । आम पाकिस्तानी को अंग्रेजी नहीं आती । लेकिन सरकार इस किताब को बड़े पैमाने पर खरीदना चाहेगी । जसवंत सिंह को आमदनी का बढ़िया जरिया मिल जायेगा । रही गोरखालैण्ड की बात तो उसे फिलहाल जसवंत सिंह को भुलना पड़ेगा । गोरखे नहीं जानते थे कि जसवंत सिंह कायदे आजम के इतने बड़े मुरीद हैं । अब जान गये हैं तो वे अब लाचार हैं । उनका वोट तो पड़ गया और वे जीत गये । सियासत में तो ऐसी दगाबाजी का दौर चलता ही रहता है ।

सुना है कि जसवंत सिंह ने कोई किताब लिखी है जिसमें उसने कायदे आजम की जगह नेहरू और सरदार पटेल को पार्टीशन के लिये जिम्मेदार ठहराया है । इस शानदार काम के लिये जसवंत को पाकिस्तान बुला कर निशाने-पाक से सम्मानित कर दो । जब कभी जेल जायेंगे तो आराम से वहीं लेट कर इनकी किताब पढा करेंगे । जब से इस नामुराद मुल्क के राष्ट्रपति हुये हैं तब से दम मारने को फुर्सत नहीं है । कभी अमरीका से कोई आ मरता है तो कभी इंग्लैण्ड से । छ: महीने से बेनजीर की मजार पर चराग जलाने भी नहीं जा पाया हूं । =>

5 Responses to “जसवंत ने क्यों लिखी किताब (जग बौराना) (व्यंग्य/कार्टून)”

  1. अब नेतओं की बात करना और उस पर तवज़्ज़ो देना बेकार सा लगता है। इन की नौटंकी देखने से अच्छा है एकता कपूर का कोई सीरियल ही देख लें आलेख अच्छा है आभार्

  2. दुखद यह है कि जब जिन्ना जी को तश्तरी में सजा कर पाकिस्तान दे दिया गया तब वे यहां नान ईश्यू बन जाने चाहिये थें। पर अभी भी भारत के निरर्थक सेक्यूकरीकरण की बहुत सी जमीन बची है। भाजपा यह सोच दुबरा रही है कि प्योर हिन्दू कार्ड उन्हें सत्ता नहीं दिला सकता।

    हे यक्ष, यह सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि जिन्ना अब भी आर्यावर्त में प्रासंगिक हैं!

  3. अब तो भाजपा और जसवन्त का मुद्दा बासी हो चला है। जम्हाई आने लगती है, लेकिन आपकी रोचक शैली के कारण पूरा पढ़ गये। बधाई।

  4. जिन्ना चले गये, महान इन्सान थे तभी तो बहुत से लोगों को रोजी रोटी दे गये.

  5. आज भाजपा में हर कोई इसका प्रधान बनना चाहता है, वर्तमान प्रधान धृतरारष्ट्र सा दीख रहा है जिसकी कोई दुर्योधन एक नहीं सुन रहा …यही ठीक समय लग रहा है हर एक को कि एक हथौड़ा दे मारे…पता नहीं कि इसकी हालत आैरंज़ेब के बाद वाले भारत की है या ग़रीब की ज़ोरू वाली जिसे हर कोई इसे भाभी बनाने पा उतारू है

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