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गया वो घर जिसमें बस गये साले (हास्य, व्यंग्य, कार्टून)

Posted by K M Mishra on March 27, 2009

नरेश मिश्र

 

साधो, सियासत के कबूतर खाने में बड़ी गहमा गहमी है । लालू यादव के साले साधु यादव ने बहनोई को खुदा हाफिज कह कर कांग्रेस का हाथ थाम लिया । अब लालू यादव भुन्नाकर साले को कोस रहे हैं । कोसने के सिवा कुछ कर भी नहीं सकते । ऋषी-मुनि होते तो साधु को शाप देते । उन्हें मलाल सिर्फ यही है कि घर में बसा साला भी साला बगावत कर बैठा ।

 

लालू यादव को वो गवईं कहावत भी याद नहीं रही जिसमें कहा गया है – गई वो दीवार जिसमें बन गये आले, गया वो घर जिसमें बस गये साले । साधु यादव सिर्फ नाम के ही साधु हैं । नाम में क्या रखा है । साधुओं को भी कुटी में रहना पसंद नहीं है । सारे साधु वन में चले जायें तो मठ-मंदिरों में राग, भोग और पंगत का प्रबंध कौन करे । करोड़ों में एक ही साधु ऐसा होता है जो गुफा से बाहर निकलना नहीं चाहता, बाकी साधु तो संसारियों के पड़ोस में ही बसना चाहते हैं ।

 

लालू यादव को सोचना चाहिए कि उनके साले को सियासत की ब्राउन शुगर उन्होंने ही चखाई थी । अब सियासी नशे की आदत पड़ गई है तो वो उसे कैसे छोड़ सकते हैं । सियासी आदमखोर जब सियासत के मानव रक्त का स्वाद चख लेता है तो तमाम जंगली जानवर उसके मेनू से गायब हो जाते हैं ।

 

लालूजी खानदानी सियासत पर जोर देने का नतीजा अच्छा नहीं होता है । साले- सालियों, बेटे-बेटियों, चचा, भतीजों, चमचों, चपरासियों और ड्राइवरों को मिलाकर एक सियासी पार्टी आसानी से बनाई जा सकती है। कुछ कसर रह जाये तो चरण चाटने वाले कोरम पूरा कर देते हैं । मजहब और जात का चुग्गा फेंककर वोटरों को आसानी से लुभाया जा सकता है । लेकिन ऐसे आसान नुस्खों से लोकतंत्र का कुछ भी भला नहीं होता है ।

 

लालूजी बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ते वक्त आपने अपनी धर्मपत्नी राबड़ी देवी को ही वारिस बनाया था । साधु यादव कम से कम राबड़ी देवी की बनिस्पत ज्यादा काबिल तो थे ही । अब उन्होंने हाथ का हाथ थाम लिया है तो इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला । यूं समझो कि थाली का घी थाली में ही फैल गया । चुनाव के बाद सोनिया जी को लालू की जरूरत जरूर पड़ेगी । गठबंधन सरकार की गणित का तकाजा है कि पुराने साथियों को सिर्फ उस हद तक नाराज किया जाये जिससे लोकसभा का हिसाब किताब दुरूस्त रहे ।

 

साधो, अगली सरकार की चाभी किसके पास है, इस मुद्दे पर मीडिया में अभी से बहस चल निकली है । मुलायम सिंह का दावा है कि उनकी मदद के बिना नवजात शिशु सरकार को आक्सीजन मिल ही नहीं सकती है । उसे जिलाये रखने के लिए समाजवादी इनक्यूवेटर की जरूरत पड़ेगी । मायावती दावे के साथ कहती हैं कि या तो उनकी सरकार बनेगी या उनकी मदद से सरकार बनेगी । पासवान चतुर खिलाड़ी हैं, वे कोई दावा नहीं करते लेकिन जानते हैं कि उनके सदस्यों की संख्या दहाई भी पार गई तो सरकार में उनकी हैसियत कम नहीं होगी । शरद पवार ने फिलहाल रणनीतिक मौन धारण कर लिया है, लेकिन यह मानना मूर्खता होगी कि वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं ।

 

यूपीए गठबंधन के सभी दल अपने खलीसे में कटार और बघनखा सहेज कर दिलकश मुस्कान बिखेर रहे हैं। वे गले मिलेंगे तो किसकी पीठ में खंजर चुभेगा और किस की आंत बघनखे से बाहर निकल आयेगी, इसके बारे में पहले से कुछ कहना मुश्किल है । हमारे लोकतंत्र के चुनावी महासमर में अब धर्म योध्दाओं की नहीं चलती । यहाँ तो शकुनियों का बोलबाला है । जो छल कपट के पांसे फैंकर इस जुए में जीत जाये,     वही हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठेगा ।

 

 

– गई वो दीवार जिसमें बन गये आले, गया वो घर जिसमें बस गये साले ।

 

One Response to “गया वो घर जिसमें बस गये साले (हास्य, व्यंग्य, कार्टून)”

  1. ANAND TRIPATHI said

    भैया बहुत पुरानी कहावत है! आपने याददाश्त ताजा करा दी

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